रिपोर्ट ललित जोशी।
नैनीताल। सरोवर नगरी नैनीताल के जनपद हल्द्वानी में भागवत किंकर नमन कृष्ण महाराज द्वारा
अपने आवास में विगत वर्षों की भांति इस वर्ष भी अक्षय पुण्यदायी आषाढ़ी पूर्णिमा (व्यास पूर्णिमा-गुरू पूर्णिमा) के पावन मंगलकारी अवसर पर आगामी 13 जुलाई 2022प्रातः— 10:35 बजे — श्री गणेश पूजन
दोपहर:—11:15 बजे—श्री सद्गुरुदेव महाराज श्री जी की पादुका पूजन।
दोपहर:- 12:00 बजे– श्री रूद्राभिषेक एवं महाआरती।।
दोपहर:- 1:00 बजे महाप्रसाद वितरण कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। उन्होंने सभी भक्तों से अपील की है । उक्त कार्यक्रम में पहुँच कर पुण्य के भागी बने।
नैनीताल में सद्गुरुदेव चरण पादुका पूजन, शिवपूजन एवं महारूद्राभिषेक, आदि कार्यक्रम सम्पन्न होंगे।
गुरू उपासना, गुरू भक्ति, गुरू चरणों में समर्पण एवं गुरू चरणों में शरणागति की अक्षय पुण्यदायी पूर्णिमा का यह पर्व जीवन में सद्गुरु की कृपा को प्रकट करता है।
आषाढ़ मास में जहाँ पूरा आकाश काले घने बादलों से ढका रहता है, ऐसी घनघोर रात्रि में आकाश की कालिमा को चीरते हुए वासना रूपी बादलों को हटाकर अपने शिष्यों के साथ साथ सम्पूर्ण मानवता को मार्ग दिखाने के लिए आकाश में पूर्ण चन्द्र की तरह सद्गुरु प्रकट होते हैं।
आषाढ़ी पूर्णिमा ही व्यास पूर्णिमा या गुरू पूर्णिमा के नाम से जानी जाती है।
हिन्दू सनातनी परम्परा में दो पूर्णिमाओं का विशेष स्थान है। एक आषाढ़ी पूर्णिमा और दूसरी शरद पूर्णिमा।
व्यास पूर्णिमा- गुरू-शिष्य सम्बन्ध, गुरू चरणों में शरणागति और शिष्यत्व को गुरू चरणों में अर्पित करने का महत्वपूर्ण दिन है।
व्यासोच्छिष्टसर्वंजगत अर्थात ये जगत और इस जगत का समस्त ज्ञान भगवान श्री कृष्णद्वैपायन व्यास जी का उच्छिष्ट है।
अतः भगवान श्री व्यास इस संसार के वास्तविक गुरु हैं। उनके ही श्रीमुख से ज्ञान की सभी निर्मल धाराएँ यहाँ अनावृत्त हुई हैं।।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को ही गुरू पूर्णिमा कहने का कुछ आध्यात्मिक प्रयोजन अवश्य है।
इस आध्यात्मिक प्रयोजन को समझने के लिए आषाढ़ी प्रकृति को समझना पड़ेगा। आषाढ़ मास में आकाश गहरे रंग के बादलों से अविच्छिन्न हो जाता है। सारा आकाश बादलों से घिर कर उस असीम नील-वर्ण महाविराट को ढंक देता है।
ठीक वैसे ही शिष्य के भीतर का घटाकाश जो जन्म-जन्मान्तरों की वासना के बादलों से ढंका रहता है जिसके कारण नील-वर्ण प्रशान्त परमात्मा भी उन बादलों से ओझल हो जाता है।
तब जीवन की शुक्लपक्षीय प्रतीक्षारत शरणागति को देखकर, आकाश के घुप्प वासनामय बादलों को चीरकर अज्ञान सी काली अंधियारी रात्रि में ज्ञान का चन्द्रोदय होता है जो अपने शिष्य के लिए महाप्रशांति परमात्मा को अनावृत्त कर देता है।
अतः गुरू है पूर्णिमा का चंद्र।।
शिव त्रिभुवन गुरू वेद बखाना….. ऐसे सद्गुरु साक्षात शिव ही हैं। शिव का अर्थ है-
“शेते तिष्ठति सर्वं जगत यस्मिन सः शिवम् ” – अर्थात जिसमें सम्पूर्ण जगत स्थिर रहता है वो शिव हैं, और सद्गुरु के रूप में अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए ही शिव बार-बार प्रकट होते हैं।
“वन्दे बोधमयं नित्यं गुरूं शंकर रूपिणम्।
यमाश्रितोऽहि वक्रोऽपि चन्द्र: सर्वत्र बन्द्यते”।।
अर्थात इस जगत में प्रत्येक शिष्य के लिए सद्गुरु शंकर स्वरूप हैं जिनके होने मात्र से द्वितीया का कुटिल चन्द्रमा (अर्थात कुपात्र शिष्य) भी पूजनीय हो जाता है।
गुरू: पादाम्बुजं स्मृत्वा, जलं शिरसि धारयेत्
सर्वतीर्थावगाहस्य सं प्राप्नोति फलं नरः।।”
अर्थात गुरू के चरणों का स्मरण, गुरू चरणों के जल को अपने सिर पर धारण करने से धरती के समस्त तीर्थों की यात्रा एवं तीर्थ-स्थान का फल मिल जाता है।
“अज्ञान मूल हरणं, जन्मकर्म निवारणम्।
ज्ञान-वैराग्य सिद्धयर्थं, गुरूः पादोदकं पिबेत्।।”
अर्थात गुरू के चरणों का जल पान करने से अज्ञान नष्ट होता है, अनेक जन्मकर्मों का निवारण होकर ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति होती है जिससे कई जन्मों के पाप नष्ट होकर अक्षय पुण्य प्राप्त होता है।
“गुरूमूर्तिः स्मरेनित्यं, गुरूनाम सदा जपेत।
गुरोराज्ञां प्रकुर्वीत, गुरोरन्यत्र भावयेत्।।”
अर्थात अपने सद्गुरूवे की मूर्ति (स्वरूप) का सदा स्मरण करना, गुरू द्वारा दिए गए नाममंत्र का नित्य जप, गुरू की आज्ञा का पालन एवं गुरू से अन्य सभी शुभ स्वरूपों में अपने सद्गुरू का दर्शन ही गुरू भक्ति है।
“बंदऊं गुरूपद कंज कृपा-सिंधु नररूप हरि,
महामोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर।।”
गुरू पूर्णिमा के शुभ पुण्यदायी मुहूर्त में गुरू चरणों का वंदन करते हैं।
जिनके चरण कमल के समान हैं, जो कृपा के सागर हैं और नर रूप में साक्षात हरि ही विराजमान हैं, जिनके चरणों में बैठने मात्र से मोह रूपी अज्ञान अंधकार मिट जाता है और जिनके वचन सूर्य की किरणों के समान मन का अंधकार मिटा देते हैं, ऐसे सद्गुरुदेव के पूजन के लिए आप सभी आमन्त्रित हैं।।