”रंग दे बसंती की सफलता का पहला क्रेडिट पं. जवाहर लाल नेहरू को जाता है, क्योंकि उन्होंने 1957 में कहा था कि जो भी व्यक्ति भ्रष्ट पाया जाता है, उसे करीब के किसी टेलीफोन पोल से लटका दिया जाएगा. टेलीफोन पोल इंतजार करते रहे, यहां तक कि कुछ फाइबर में भी बदल गए, लेकिन कोई भ्रष्ट उन पर नहीं लटकाया गया. यही गुस्सा मेरे अंदर था, जो कहीं सो गया था और फिर ये 1998 में जागा.”
ये कहना है ‘रंग दे बसंती’ की मूल कहानी के लेखक कमलेश पांडे का. वैसे ये कहानी 18 साल का सफर तय कर चुकी है. 12 साल रिलीज के बाद के और 6 साल वो, जब ये गर्भ में थी। रंग दे बसंती के बारे में कहा गया था, ‘एक फिल्म जो एक जनआंदोलन बन गई.’ न्यूज चैनलों के एंकरों के पीछे दिखने वाली पट्टी पर फिल्म के बारे में और भी अच्छी-अच्छी बातें लिखी गई थीं. हम बताते हैं इस फिल्म के परदे पर आने से पहले परदे के पीछे 7 सालों तक क्या-क्या हुआ.
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- ये 2005 की सर्दियां थीं. दो महीने बाद ‘रंग दे बसंती’ रिलीज होने वाली थी. निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा इसकी टेस्ट स्क्रीनिंग्स कर रहे थे. इसे जानकारों को दिखा रहे थे. सभी जगह से पॉजीटिव रिस्पॉन्स आ रहा था, लेकिन उनके दिमाग में एक चीज जो खटक रही थी, वह ये कि आखिर वे फिल्म के अंत में सभी नए जमाने के क्रांतिक्रारियों को मरता क्यों दिखा रहे हैं? स्क्रिप्ट में इसकी वजह ये थी कि वे इन सभी की कुर्बानी भगत सिंह, राजगुरु और चंद्रशेखर की तरह अमर करना चाहते हैं. लेकिन ये फिल्म में कहीं दिख नहीं रही थी. कुछ मिसिंग था. इन बंदों की कुर्बानी का असर दिखाने के लिए मेहरा ने इसमें कुछ और जोड़ने का तय किया. उन्होंने देर रात को अपने फर्स्ट असिस्टेंट सुनील पांडे को फोन किया और बताया कि फिल्म में कुछ और जोड़ना है, जिसकी शूटिंग तत्काल करनी है. सुनील सुनकर हक्के-बक्के रह गए. फिल्म कम्पलीट है, सब जगह से धांसू रिस्पॉन्स आ रहा है और निर्देशक कह रहा है कि इसे बदलना है? सब कुछ उनकी समझ से बाहर था. मेहरा ने एनडी टीवी की राधिका रॉय को फोन कर देशभर में एनडी टीवी के क्रू मेंबर्स की मदद मांगी. मेहरा नए सीन में बताना चाहते थे कि फिल्म में जिन बंदों ने कुर्बानी दी वह बेकार नहीं गई. श्रीनगर से बेंगलुरू और मुंबई से गुवाहाटी तक के युवाओं की न्यूज चैनल के जरिए राय ली गई। इनमें कई वीडियो ओरिजनल भी हैं. ये सब सीन फिल्म के क्लाइमैक्स में एेन मौके पर एड किए गए.
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- सू के कमरे में आमिर खान के रोने वाले सीन ने कईयों की आंखों में आंसू ला दिए. आमिर के मुंह में निवाला रहता है और वे रोए जा रहे हैं. दरअसल, आमिर इसे खराब सीन मानते हैं. वे जैसा इसे शूट करना चाहते थे, वैसा ये हुआ ही नहीं. ये सीन शेड्यूल में पहले शूट करना तय हुआ था. आमिर ने इसके लिए तगड़ी रिहर्सल की थी। कुछ क्रिएटिव सोच रखा था। एक रोज पहले वे इमोशन्स से पूरी तरह भर गए थे. लेकिन डीओपी विनोद प्रधान ने ऐन वक्त पर खेल बिगाड़ दिया. शेड्यूल न बिगड़े इसलिए इस सीन काे तीन दिन बाद शूट करने का कहा गया. बाद में ये सीन वैसे शूट हुआ नहीं, जैसे आमिर ने सोच रखा था.
- फिल्म का नाम सबसे पहले ‘The young guns of India’ रखा गया था. इसके बाद ‘आहुति’ रखा गया था. फिर इसे ‘Young guns of 30s’ कर दिया गया. लेकिन अंत में ये तीनों ही नाम रिजेक्ट हो गए. बाद में सोचा गया कि भगत सिंह के प्रिय गाने ‘मेरा रंग दे बसंती…’ का कोई शब्द टाइटल में आना चाहिए. इस तरह मौजूदा टाइटल तय हुआ और फिर सू फिल्म में जो डॉक्यूड्रामा बनाती है, उसका नाम ‘Young guns of 30s’ रख दिया गया. कहते हैं न कि कोई चीज बेकार नहीं जाती. यहां भी टाइटल ठिकाने लग ही गया.
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- इस फिल्म के बीज 1998 में पड़े थे. कमलेश पांडे को उनकी एक दोस्त मंजू सिंह ने कहा था कि वे भगत सिंह पर एक टीवी सीरीज लिखें. उन्होंने भगत सिंह पर लिखी कुछ किताबें भी उन्हें पढ़ने को दी थीं. लेकिन पांडेजी ने इस पर टीवी सीरीज तो नहीं लिखी, सीधी फिल्म की कहानी ही लिख डाली. इसे कई बार उन्होंने तोड़-मरोड़कर लिखा, लेकिन कोई प्रोड्यूसर इस फिल्म में पैसे लगाने को तैयार न था। लोगों का रिएक्शन ऐसा था ‘एक और भगत सिंह?’ क्योंकि पहले ही भगत सिंह पर बनीं छह फिल्में फ्लॉप हो गई थीं. ‘रंग दे बसंती’ टाइटल सुनकर लोग मजाक उड़ाते हुए कहते थे, ‘इसमें बसंती का रोल कौन कर रहा है?’ ऐसे समय में कमलेश एक ही बात मेहरा से कहते थे कि यदि ये फिल्म बनी और एक भी बंदा या बंदी उनसे आकर कहता है कि इस फिल्म ने उसमें बदलाव ला दिया तो उनकी मेहनत सफल हो जाएगी. बाद में मामला यूं ही टलता रहा और तय हुआ कि 1920 और 2000 के दशक को जोड़कर फिल्म बनाई जाएगी. दोनों ही कहानियां पैरेलल चलेंगी.
5.फिल्म में रक्षा मंत्री की हत्या वाला सीन पहले स्क्रिप्ट का हिस्सा नहीं था. इसे जोड़ने की सलाह फिल्म की एडिटर पीएस भारती ने दिया था, जो राकेश ओमप्रकाश मेहरा की पत्नी भी हैं.