देहरादून, । दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान देहरादून के आश्रम सभागार में आयोजित रविवारीय साप्ताहिक सत्संग में प्रवचन करते हुए आशुतोष महाराज की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी ममता भारती ने कहा कि गुरू के नाम में विद्यमान दो अक्षरों में ही उनकी महिमा छुपी हुई है। गु का अर्थ है अंधकार और रू से तात्पर्य है प्रकाश। अर्थात जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए वही गुरू है। शास्त्र भी इसका अनुमोदन करते हैं। गु अंधेरा जाणिए रू कहिए प्रकाश, मेटे अज्ञान तम गुरू कहाए तास। संसार की समस्त बाहरी विद्याओं को जानने-समझने के लिए भी जीवन में किसी न किसी गुरू, उस्ताद या मार्गदर्शक की अत्यंत आवश्यकता पड़ती है, यह संसारिक विद्या मनुष्य के तभी तक काम आती है जब तक वह जीवित है।
इस संसारिक विद्या का अंत मनुष्य के शरीर की समाप्ति के साथ ही हो जाना निश्चित है। महापुरूषों ने एक अहम् विद्या को प्राप्त करने की बात भी कही है। इस विद्या को परम विद्या या राज विद्या कहकर उन्होंने प्रत्येक जीव के जीवन में इसे महत्वपूर्ण बताया है। इस समस्त विद्याओं की राजा विद्या ब्रह्म् विद्या को जान लेनेे के पश्चात् फिर कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता है। इस विद्या के जनक हुआ करते हैं- तत्ववेत्ता श्रोत्रिय ब्रह्म्निष्ठ पूर्ण सद्गुरूदेव। सद्गुरू अपने पावन ‘ब्रह्म्ज्ञान’ के परमोज्जवल प्रकाश के द्वारा अपने शरणागत् शिष्य के समस्त संशयों, समस्त विकारों का समूल नाश करते हुए उसके जीवन के अज्ञानता भरे अंधकार को परम प्रकाश से भर दिया करते हंै।
प्रत्येक मनुष्य के मस्तक पर एक तीसरा दिव्य नेत्र विद्यमान है। गुरू जब जीवन में आते हैं तो इस दिव्य नेत्र, जिसे शास्त्रीय भाषा में शिवनेत्र भी कहा गया, को पूर्णतः उजागर कर देते हैं, इसी दिव्य नेत्र (लोचन) के द्वारा परमात्मा का दर्शन सम्भव है। एक शिष्य का जीवन गुरू के चरणों में आकर ही निखरता है। जीवन रूपी बगिया के गुरूदेव एक एैसे बागबंा हुआ करते हैं जिनकी कृपा के द्वारा उजाड़ बगिया भी सुन्दर उपवन का रूप धारण कर महकने लगती है। संसार में रहते हुए जीव अनेक प्रकार के कर्म-बंधनों में स्वयं को बांधता चला जाता है जो कि उसके लिए अनेक जन्मों का निर्धारण किया करते हैं। जब पूरे गुरू का आश्रय मिल जाता है तो गुरू जीव के समस्त बंधनों को काटकर उसे स्वतंत्र कर दिया करते हैं। चूंकि सद्गुरू स्वयं बंधन मुक्त हुआ करते हैं इसीलिए उनकी शरण में आकर ही जीवात्मा बंधनों की बेड़ियों से आज़ाद हो पाती है। ममता भारती ने कहा कि सद्गुरू के वचन शिष्य के जीवन में एक प्रकाश पुंज की तरह हुआ करते हैं जिसके आलोक में शिष्य अपने जीवन मूल्यों का निर्धारण करते हुए आगे बढ़ता चला जाता है। यह प्रकाश पुंज कदम-कदम पर शिष्य का मार्ग दर्शन करते हुए उसे मंजिल तक पहुंचाता है। गुरू के वचन तभी शिष्य को पूर्णतः लाभ प्रदान करते हैं जब शिष्य इन वचनों को पूर्णतः अपने जीवन में उतारा करता है। जीवात्माओं के कल्याण के लिए सद्गुरू सृष्टि के सभी नियमों को तोडने में तनिक भी संकोच नहीं करते। ईश्वर भी सृष्टि के नियमों में बंधा हुआ होता है किन्तु गुरू समस्त नियमों से ऊपर हुआ करते है। शास्त्रों ने तो गुरू को पारस से भी श्रेष्ठ बताया है। पारस के अन्दर एक विशेषता है कि वह अपने सम्पर्क में आने वाले लोहे को स्वर्ण बना दिया करता है लेकिन पारस में यह सामथ्र्य नहीं कि वह अपने स्पर्श से लोहे को अपने जैसा पारस बना दे। गुरू के भीतर इतनी महान सामथ्र्य है कि वह लोहे के समान शिष्य को अपने जैसा पारस बना सकता है।
भजनों की सटीक मिमांसा करते हुए मंच का संचालन साध्वी जाह्नवी भारती के द्वारा किया गया।