हमलोगों के कई सारे मित्र इस बार बिहार के चुनाव में अपना भाग्य आजमा रहे हैं। कुछ IIT से हैं, कुछ JNV से हैं। सब पढ़े लिखे हैं। संसद और विधानसभा में बैठे 90% लोगों से बेहतर हैं। लेकिन वो सब किसी छोटी पार्टी से खड़े हैं। एक दो मित्र BSP से हैं। लेकिन BSP को तो ऊंची जाति के लोग हेय दृष्टि से देखते हैं।
अच्छे और पढ़े लिखे लोगों को बड़ी पार्टी टिकट देती नहीं। उन्हें चाहिये करोडों। तब टिकट बिकता है। यह केवल बिहार की समस्या नहीं है। देश की समस्या है।
दिल्ली जैसे प्रदेश में राघव चड्डा, आतिशी मार्लेन जैसे लोग हार जाते हैं और हंसराज हंस जैसे रंगीले कबूतर जीत जाते हैं।
बिहार में तो साफ सुथरे और पढ़े लिखे कैंडिडेट को लोग कहेंगे, भाक साला, एकरा के के जानता ? वोट कटवा ह ई। अन्त सिंह के, साधु यादव के, फलनवा यादव के, शहाबुद्दीन के, पप्पू पांडेय के, सूरजभान सिंह के सब लोग जानता। दबंग ह लो उ। उ ना जितिहें त ई जितिहें। इंकर कौन औकात बा उनका सामने।
जाति आधारित वोटिंग की समस्या सूर्य की तरह उदीयमान और स्थायी है। कोई कुछ भी लीपा पोती कर ले। जैसे हमारे शरीर में खून है, वैसी ही जाति है।
लेकिन अच्छे, पढ़े लिखे कैंडिडेट यदि इस समीकरण से भी जीतते हैं तो कोई बुराई नहीं है। अंत में वो समाज, लोकतंत्र को मजबूत करेंगे और भला ही करेंगे। लेकिन क्या वो जीतेंगे? प्रश्न यह है। क्योंकि लोग हैं, जो वोट देते हैं। और वो औकात देखते हैं। उनके प्रिय शब्द हैं : बाहुबली, दबंग, आपन जात, छोट जात, बड़ जात।
जब तक करोड़ रुपया जिंदाबाद, बाहुबली जिंदाबाद, जात पात जिंदाबाद है, तब तक बिहार का विकास मुर्दाबाद, लोकतंत्र का विकास मुर्दाबाद और देश और राज्य का पिछड़ना जिंदाबाद है और रहेगा।
Writer is from IIT Kharagpur, a Blogger, Social Worker, Political activist. He can be reached at Twitter @iArunBharti